प्रभाष जोशी (15 जुलाई 1936 - 5 नवंबर 2009) ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने
पत्रकारिता को प्रतिरोध की संस्कृति से जोड़ा। वे ज्वलंत विषयों का सुचिंतित
विश्लेषण करने के समांतर सामाजिक हस्तक्षेप भी करते थे। जीवन के आखिरी वर्षों
में वे पेड न्यूज के खिलाफ देशव्यापी मुहिम छेड़े हुए थे। जितने मनोयोग से
उनके निबंध, लेख, स्तंभ, टिप्पणियाँ और रिपोर्ताज पढ़े जाते थे, उतने ही ध्यान
से लोग-बाग उनका भाषण भी सुनते और गुनते थे। 'जनसत्ता' व अन्यत्र प्रकाशित
उनके लेखों को इकट्ठा कर राजकमल प्रकाशन ने जो किताबें प्रकाशित की हैं, वे
हैं - 'आगे अंधी गली है', '21वीं सदी : पहला दशक', 'मसि कागद', 'कागद कारे',
'धन्न नरमदा मइया हो', 'जब तोप मुकाबिल हो', 'जीने के बहाने', 'खेल सिर्फ खेल
नहीं है', 'लुटियन के टीले का भूगोल' और 'हिंदू होने का धर्म'। प्रभाष जी की
ये किताबें प्रभाष जोशी की खास भाषा-शैली का दृष्टांत तो हैं ही, वे यह भी
बताती हैं कि समाज, संस्कृति और समय के घटनाचक्र को लेखक का वैचारिक मानस नए
संदर्भ में कैसे देखता है और अनदेखे और अनछुए पहलुओं को परखते हुए उन्हें
विवेक की कसौटी पर कसकर उन्हें कैसे नया परिप्रेक्ष्य देता है।
'आगे अंधी गली है' पुस्तक में प्रभाष जोशी के अंतिम दो वर्षों का लेखन संकलित
है। पुस्तक की भूमिका में प्रभाष जोशी के जीवन के आखिरी छह दिनों का वृत्तांत
भी है। '21वीं सदी : पहला दशक' पुस्तक में प्रभाष जी के वे लेख संकलित हैं जो
उन्होंने 2001 से 2009 के बीच लिखे। इस किताब में देश के बहुजन जीवन की बढ़ती
मुश्किलों और आर्थिक उदारीकरण के दुष्परिणामों की व्याख्या विस्तार से की गई
है। 'मसि कागद' में प्रभाष जी की प्रारंभिक टिप्पणियाँ संकलित हैं तो 'जब तोप
मुकाबिल हो' में संस्मरण। 'जीने के बहाने' में प्रभाष जी ने अपने समय की
चर्चित शख्सियतों के चरित्र और विचार का विवेचन किया है तो 'खेल सिर्फ खेल
नहीं है' पुस्तक में प्रभाष जी के खेल संबंधी लेख हैं। क्रिकेट के प्रति
प्रभाष जी की दीवानगी इस हद तक थी कि खेल खत्म होते-होते वे लिख लेते थे। उनके
उन लेखों ने हिंदी पत्रकारिता में खेल विश्लेषण का पूरा परिदृश्य ही बदल दिया।
'लुटियन के टीले का भूगोल' प्रभाष जी के राजनीतिक लेखों का संग्रह है। 'हिंदू
होने का धर्म' पढ़े बिना बाबरी ध्वंस के बाद और गुजरात नरसंहार तक की सच्चाई
को नहीं समझा जा सकता।
राजेंद्र माथुर के समकालीन प्रभाष जी सर्वोदय और गांधीवादी विचारधारा के थे।
विनोबा के सान्निध्य में वे सेवा करना चाहते थे किंतु उनके कार्यक्रमों की
रिपोर्ट तैयार करते-करते पत्रकारिता में आ गए। प्रभाष जी कहते भी थे - आए थे
हरिभजन को ओटन लगे कपास। उनकी पत्रकारिता की शुरुआत इंदौर के नई दुनिया से
हुई। जब 1972 में जयप्रकाश नारायण ने मुंगावली की खुली जेल में माधो सिंह जैसे
दुर्दान्त दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया, तब प्रभाष जी भी उस अभियान के एक
सहयोगी थे। बाद में दिल्ली आने पर प्रभाष जी ने 1974 में एक्सप्रेस समूह के
हिंदी साप्ताहिक 'प्रजानीति' का संपादन किया। आपातकाल में उसके बंद होने के
बाद इसी समूह की पत्रिका 'आसपास' उन्होंने निकाली। बाद में प्रभाष जी 'इंडियन
एक्सप्रेस' के अहमदाबाद, चंडीगढ़ और दिल्ली में स्थानीय संपादक रहे। 1983 में
एक्सप्रेस समूह का हिंदी दैनिक 'जनसत्ता' निकला' तो वे उसके प्रधान संपादक
बने। वे अंग्रेजी पत्रकारिता से हिंदी पत्रकारिता में आए थे, इसलिए 'जनसत्ता'
पर कभी अंग्रेजी के वर्चस्व को उन्होंने हावी नहीं होने दिया। प्रभाष जी ने
संपादकीय श्रेष्ठता पर प्रबंधकीय वर्चस्व भी नहीं होने दिया। प्रभाष जी और
'जनसत्ता' एक दूसरे के पर्याय बन गए।
'जनसत्ता' जब दिल्ली से 17 नवंबर 1983 को निकला जो प्रभाष जोशी ने विशेष
संपादकीय लिखी - 'जनसत्ता क्यों?' वह चौपाल स्तंभ में छपा। वह पाठकों की जगह
है। प्रभाष जी ने लिखा था, "यह कॉलम आपका है। आज मैं इसे हथिया रहा हूँ तो
इसके कुछ कारण हैं। जो अखबार पहली बार पाठकों के पास जा रहा है, उसमें पाठकों
के पत्र नहीं हो सकते। अगर हों भी, सच्चे नहीं होंगे। सच्चे पत्र भी हमारे
पास हैं जो दोस्तों और शुभचिंतकों ने बड़ी आशा से हमारे प्रकाशन पर लिखे हैं।
लेकिन एक अखबार को किसने और किस तरह बधाई दी, इसमें आम पाठक की कितनी रुचि
होती है? चलन है कि अखबार अपने बारे में पहले पेज पर या पहला संपादकीय लिखे।
लेकिन यह जगह खबरों और टिप्पणी के लिए है। बचता है आपका कॉलम और उसी में
बताना ठीक है कि जनसत्ता क्यों? देश में सबसे ज्यादा अखबार हिंदी में निकलते
हैं। एक दैनिक और बढ़ाने की जरूरत क्या थी। पर हिंदी में पढ़ने वाले भी सबसे
ज्यादा हैं, लगभग दस करोड़ और पत्र-पत्रिकाएँ बिकती हैं सिर्फ एक करोड़ चालीस
लाख। यानी अंग्रेजी से सिर्फ तीस लाख ज्यादा जबकि अंग्रेजी बोलने-समझने वाले
दो प्रतिशत हैं और हिंदी को आधा हिंदुस्तान बोलता-समझता है। इसका कारण यह
नहीं है कि हिंदी इलाका गरीब है और उसमें पढ़ने की इच्छा और उत्सुकता नहीं
है। हिंदी इलाके की अपनी कुछ समस्याएँ हैं और उसके पाठकों को वह सब नहीं
मिलता जो उसे चाहिए। हिंदी एक से ज्यादा राज्यों की भाषा है इसलिए उसका
केंद्र किसी एक राज्य मे नहीं जैसा कि बंगला, मराठी, गुजराती, मलयालम आदि का
है। हिंदी राज्यों की अपने आप में और पूरे इलाके की देश में ऐसी कोई अलग-थलग
पहचान नहीं है जैसी कि दूसरे भाषाई राज्यों की है। फिर हिंदी भी सब राज्यों
में एक जैसी नहीं है। बोलने और लिखने की भाषा का फर्क तो खैर है ही। इस हालत
में हिंदी राज्यों से निकलने वाले दैनिक पूरे इलाके को कवर नहीं कर पाते और
दिल्ली से निकलने वाले अखबार किसी एक जमीन मे जड़ें नहीं उतार पाते। यातायात
और संचार की नई तकनीक से कुछ खाइयाँ पाटी जा सकती हैं। लेकिन बोलचाल की ऐसी
भाषा जो नव-साक्षर या कम पढ़े-लिखे आदमी से लेकर प्रखर विद्वान तक के उपयोग और
अनुभव से अमीर हो, बनते-बनते बनती है और वही लाखों-करोड़ों लोगों को जोड़ती
है। ऐसी हिंदी पनप भी रही है। जरूरत है उसे बोलने से लिखने और छपने तक लाने
की। 'जनसत्ता' ऐसी हिंदी को पनपाने और प्रतिष्ठित करने के लिए निकल रहा है।
लेकिन कोई भी अखबार सिर्फ भाषा की सेवा के लिए नहीं निकलता। वह दरअसल अपने
पाठकों और दुनिया के बीच एक पुल होता है, संवाद का जरिया होता है, मंच होता
है। वह पाठक की निजी आस्थाओं और उसकी सार्वजनिक निष्ठाओं को साधता है। वह
अपने पाठकों की आशा-आकांक्षाओं और जीवन मूल्यों का आईना होता है। वह पाठकों
से बनता है और पाठकों को बनाता है। लेकिन यह अर्थवान प्रक्रिया बिना
विश्वसनीयता के नहीं चल सकती। 'जनसत्ता' यह विश्वसनीयता कमाने के लिए निकल
रहा है।" कहने की जरूरत नहीं कि 'जनसत्ता' ने वह विश्वसनीयता बनाई।
1983 में दिल्ली से जब 'जनसत्ता' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो प्रभाष जी ने
अखबार के लिए जो वर्तनी निश्चित की, वह निम्नवत है :
1.
हिंदी वर्तनी में 'य' के वैकल्पिक रूपों के बारे में काफी अराजकता है। उसमें
एकरूपता के ख्याल से और छपाई की सुविधा को ध्यान में रखते हुए हम ये की जगह ए
और यी की जगह ई का प्रयोग करेंगे। क्रिया रूपों को हम ऐसे लिखेंगे : आप, गए,
आएगा, पाएगा, जाएगा, आइए, दीजिए आदि। विशेषण भी वैसे ही लिखे जाएँगे : नई,
पराई, पराए आदि। अपव्यय के लिए न लिखकर हम के लिए लिखेंगे। संज्ञा रूप लतायें,
मातायें कन्यायें आदि क्रमशः लताएँ, माताएँ, और कन्याएँ हो जाएँगे।
2.
हम आम तौर पर अनुस्वार का प्रयोग करेंगे। नियम के रूप में इसका अपवाद एक तो
पंचमाक्षर हैं जिनके साथ अनुस्वार नहीं जाता : जैसे - तण्णीर, मम्मट आदि
शब्दों में। इसके अलावा य-वर्ग के व्यंजनों वाले अनेक शब्द जैसे संपर्क,
कन्या, अन्य, अन्वय, संन्यास आदि। हिन्दी में हम अनुस्वार नहीं लगाएँगे। लेकिन
संहार, संवाद आदि शब्दों में अनुस्वार चल सकता है।
3.
हम चंद्रबिंदु का प्रयाग नहीं करेंगे। इसका अपवाद केवर 'हँसना' होगा।
4.
जब तक उर्दू के शब्द का उर्दू के ही संदर्भ में इस्तेमाल नहीं किया जा रहा हो,
तब तक नुक्ता नहीं लगाया जाएगा।
5.
हलंत के बारे में भी यही व्यवहार होगा। संस्कृत के शब्दों को संस्कृत के ही
संदर्भ में इस्तेमाल किया जा रहा हो, तब ही उसका प्रयोग होगा।
6.
एकवचन 'वह' को आदरसूचक रूप देने के लिए 'वे' का प्रयोग प्रचलित है। हम उसी का
पालन करेंगे।
7.
दुःख, छः आदि शब्दों में विसर्ग को छोड़ दिया जाएगा। छः को छह लिखेंगे।
8.
जिन व्यक्तिवाचक संज्ञाओं से किसी स्थान या व्यक्ति का बोध होता है, उनका रूप
विभक्तियों के जुड़ने के कारण नहीं बदलेगा। जैसे, ढाके की मलमल, पटने का गांधी
मैदान की जगह ढाका की मलमल या पटना का गांधी मैदान ही सही है।
9.
संबंधकारक विभक्तियों के प्रयोग के बारे में इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए
कि जन दो शब्दों के बीच संबंध बताया गया हो, वे विभक्ति के पास हों जैसे,
"शिक्षा मंत्रियों की दिल्ली में बैठक" के बजाय 'दिल्ली में शिक्षा मंत्रियों
की बैठक' लिखा जाना चाहिए।
10.
देहात, जमीन, मानव, समय, वारदात जैसे शब्दों के बहुवचन रूप गलत हैं।
11.
याने, यानि लिखना गलत है। सही शब्द यानी है।
12.
वाक्य में जब के बाद ही तब आना चाहिए। अंग्रेजी से अनुवाद के प्रभाव में तब
पहले इस्तेमाल करके फिर जब लाने की आदत छोड़नी चाहिए।
13.
हिंदी वाक्य कर्ता पर टिका होता है। कर्मवाक्य रूप केवल क्रिया पर जोर देते
समय ही रखा जाना चाहिए। अंग्रेजी से अनुवाद के प्रभाव में वाक्य को अनावश्यक
कर्म पर टिकाने की आदत पड़ गई है। उदाहरण के लिए 'मंत्री के द्वारा बैठक बुलाई
गई है, लिखा जाने लगा है जबकि सही रूप में मंत्री ने बैठक बुलाई है होगा। ऐसे
वाक्यों में द्वारा के प्रयोग से सदा बचना चाहिए।
14.
हेतु, एवं, तथा शब्दों के अनावश्यक प्रयोग से बचा जाए।
15.
अनेक शब्दों को नाहक दीर्घ बनाया जाने लगा है। सही रूप ये है : दिखाई, ऊँचाई
आदि।
16.
अंगरेजी, जरमनी आदि शब्दों की जगह अंग्रेजी, जर्मनी शब्द चल गए हैं, हम उन्हें
इसी रूप में लिखेंगे।
17.
'जबकि' के इस्तेमाल को कम से कम किया जाए।
18.
कार्यवाही और कार्रवाई शब्दों के अलग-अलग अर्थ रूढ़ हो गए हैं। कार्यवाही
प्रक्रिया के अर्थ में इस्तेमाल होता है जैसे बैठक की कार्यवाही तीन घंटे चली।
कार्रवाई कोई कदम उठाने के लिए इस्तेमाल होता है जैसे : जिला परिषद अपने
फैसलों पर इस नौ अगस्त से कार्रवाई करेगी।
19.
राजनीतिक संज्ञा के रूप में इस्तेमाल होता है और राजनैतिक विशेषण के रूप में।
राजनीतिज्ञ शब्द को राजनीति विज्ञान के पंडित का अर्थ बताने के लिए सुरक्षित
रखना चाहिए।
20.
'वाला', 'कर' आदि शब्दों को संज्ञा या क्रिया पदों के साथ मिलाकर लिखना चाहिए
जैसे घरवाला, खाकर, जाकर आदि। लेकिन 'पहुँच कर' अलग-अलग लिखा जा सकता है।
21.
'सार्वजनिक प्रतिष्ठानों' अथवा 'सार्वजनिक उद्योगों' के लिए सरकारी
प्रतिष्ठान, सरकारी उद्योग लिखा जाना चाहिए।
22. कृषि उत्पादन के लिए उपज अथवा पैदावार लिखा जाए। औद्योगिक व खनिज त्पादन
आदि के संदर्भ में उत्पादन लिखा जाए।
23.
लोकतंत्र, प्रजातंत्र, जनतंत्र और गणतंत्र समानार्थी शब्द हैं। किंतु एकरूपता
की दृष्टि से 'लोकतंत्र' शब्द ही इस्तेमाल किया जाएगा। गणतंत्र दिवस के संदर्भ
में तो गणतंत्र का प्रयोग होगा ही, गणतंत्र के विशेष अर्थ को बताना हो तब भी
गणतंत्र शब्द का इस्तेमाल किया जाएगा।
24.
सभा, समारोहों, कार्यक्रमों आदि की खबर देते हुए 'शुरू' का इस्तेमाल अक्सर
अनावश्यक होता है। जैसे, '10 अक्टूबर से राम लीला शुरू होगी' की जगह '10
अक्टूबर से रामलीला होगी' काफी है।
25.
किश्त और किस्त के अंतर को ध्यान में रखना चाहिए।
26.
दुर्घटना और प्राकृतिक आपदाओं में लोग मरते हैं। 'बस ट्रक टक्कर में तीन मारे
गए' प्रयोग गलत है। 'मारे गए' का प्रयोग युद्ध, संघर्ष अथवा पुलिस गोलीकांड
जैसी स्थितियों में ही उचित है। व्यक्ति की गरिमा के ख्याल से 'एक मरा' की जगह
'एक की मृत्यु' लिखा जाना चाहिए। 'चार मरे' प्रयोग सही है।
27.
रेलगाड़ी के लिए केवल रेल शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। रेल का अर्थ पटरी
होता है न कि रेलगाड़ी।
28.
निर्णय, निश्चय, संकल्प किया जाता है, लिया नहीं जाता।
29.
अदालती फैसलों, निर्वाचित संस्थाओं के अध्यक्ष तथा पीठासीन अधिकारियों के
फैसलों को 'निर्णय' लिखा जाए, 'निश्चय नहीं।'
30.
हत्या के पहले जघन्य, नृशंस आदि विशेषण जोड़ना अनावश्यक है। हत्या अपने आप में
ही जघन्य और नृशंस है।
31.
हथियारबंद गलत है। डकैत हमेशा हथियारबंद ही होते हैं।
32.
'अभूतपूर्व' का प्रयोग कम से कम किया जाए। संसद, विधानसभाओं में अभूतपूर्व
हंगामा, शोरगुल आदि का प्रयोग आम हो गया है। इस विशेषण का प्रयोग अति विशेष
स्थितियों के लिए बचाकर रखना चाहिए।
33.
नामों के साथ उपाधि अथवा श्री आदि लगाना अनावश्यक है। श्री, श्रीमती आदि का
प्रयोग केवल उप नामों के साथ होगा। जैसे बलराम जाखड़ तथा श्री जाखड़।
34.
सोना 24 कैरेट, सोना स्टैंडर्ड समानार्थी शब्द हैं। इनमें से किसी एक का ही
इस्तेमाल करना चाहिए। सोना 22 करैट, सोना आभूषण भी समानार्थी हैं और उनमें से
कोई एक ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। एकरूपता की दृष्टि से सोना 24 कैरेट और
सोना 22 कैरेट का इस्तेमाल किया जा सकता है। चाँदी के भावों के बारे में भी
एकरूपता अपनानी चाहिए।
35.
हम बाव और दाम शब्द का ही इस्तेमाल करेंगे। दाम जब वस्तु की इकाई का जिक्र हो।
36.
गरी, नारियल, खोपरा, गोला, पर्यायवाची शब्द हैं। इनके लिए गोला का इस्तेमाल
किया जा सकता है।
37.
गोल आदि की संख्या लिखते समय टीम और खिलाड़ी के नाम के बाद ही जीत या हार के
अनुरूप गोल संख्या लिखी जाए। जैसे अमुक खिलाड़ी 2-0 से जीता या अमुक खिलाड़ी
0-2 से हारा। अमुक खिलाड़ी ने अमुक खिलाड़ी को हराकर जीत हासिल की, प्रयोग गलत
है। फलाँ को हराया अथवा पर जीत हासिल की लिखा जाना चाहिए।
38.
प्रातः, अपराह्न, सायं, रात्रि की जगह सुबह, दोपहर, शाम, रात शब्दों का
इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
39.
अक्सर उद्धरण चिह्नों को बंद करते समय उन्हें विराम चिह्नों से पहले लगा दिया
जाता है। यह गलत है। उदाहरण के लिए उसने कहा, 'पास आओ'। सही नहीं है। सही है,
उसने कहा, 'पास आओ।'
प्रभाष जी के नेतृत्व में 'जनसत्ता' सबकी खबर लेता रहा और सबको खबर देता रहा
और कारगर ढंग से जनता के सुख-दुख को सही अर्थों में प्रतिबिंबित कर पाया। इसी
कारण उसकी विश्वसनीयता, गंभीरता और रोब आज भी कायम है। 'जनसत्ता' के अलावा
दूसरे अखबारों ने उत्तरोत्तर आधुनिक तकनीक और सरकारी-गैर सरकारी सुविधाओं का
लाभ तो उठाया, उनके कलेवर बदल गए, उनकी साज-सज्जा में गुणात्मक सुधार आया यानी
खबरों की प्लेसिंग, डिस्प्ले, ले-आउट आकर्षक हुए पर उसी तरह का आधुनिकता बोध
और 'खुलापन' उनकी पत्रकारिता में नहीं आया। आधुनिकीकरण के कारण और बिकाऊ माल
का प्रवक्ता होने के कारण दूसरे अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ती गई। दूसरी तरफ
'जनसत्ता' छह कॉलम में पुराने ढंग से ही निकलता रहा। उसकी प्रसार संख्या गिरने
लगी फिर भी उसने बाजार के दबाव, विज्ञापनदाताओं के दबाव, सरकारी दबाव,
सुविधाओं और साधनों के दबाव के आगे सिर नहीं नत किया। 'जनसत्ता' ने अखबार की
कीमत भी नहीं घटाई।
प्रभाष जी के सहयोगियों में समाजवादी, गांधीवादी, सर्वोदयी, वामपंथी, उग्र
वामपंथी, कांग्रेसी और जनसंघी हर विचारधारा के लोग थे और हरेक को अपनी बात
कहने की पूरी आजादी थी। संपादकीय सहयोगियों की गलती को प्रभाष जी अपनी गलती
मान लेते थे। एक बार उनके सहयोगी बनवारी ने सती प्रथा के पक्ष में संपादकीय
लिख दी और देश में बवाल मच गया तो प्रभाष जी ने बनवारी का बचाव किया। संपादक
के रूप में और पत्रकारिता के पेशे के प्रति दायबद्धता का यह भी एक विरल
दृष्टांत है। उस घटना के बाद भी बनवारी अखबार में बने रहे थे। प्रभाष जी की
संपादकीय टीम में बनवारी के अलावा रामबहादुर राय, राहुल देव, मंगलेश डबराल,
अच्युतानंद मिश्र, हरिशंकर व्यास, कुमार आनंद, राजेंद्र धोड़पकर, जवाहरलाल
कौल, जगदीश उपासने, ओम थानवी, अरविंद मोहन, नीलम गुप्ता, सुशील कुमार सिंह,
हेमंत शर्मा, सुरेश शर्मा, मनोहर नायक, रवींद्र त्रिपाठी, अरुण कुमार
त्रिपाठी, आलोक तोमर, श्याम आचार्य, राजेश जोशी आदि शामिल रहे थे।
प्रभाष जी के नेतृत्व में जनसत्ता का कोलकाता संस्करण 1991 में निकला तो पहले
दिन की संपादकीय का शीर्षक प्रभाष जी ने दिया था - चालो वाही देस। यानी वे
चाहते थे कि देस से अखबार संवाद बनाए। और अखबार ने भरसक वह संवाद बनाया।
प्रभाष जी अक्सर कोलकाता आते और 'जनसत्ता', कोलकाता के स्थापना दिवस के मौके
पर इंडियन एक्सप्रेस के अलीपुर स्थित गेस्ट हाउस में पार्टी देते। उसमें
संस्कृतिकर्मियों, लेखकों और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को भी बुलाया
जाता था। मुझे याद है कि एक बार की पार्टी में वरिष्ठ कवि नागार्जुन भी
उपस्थित हुए थे। तब वे कोलकाता आए हुए थे। प्रभाष जी ने खुद आगे बढ़कर बाबा
नागार्जुन की अगवानी की और एक हाथ में प्लेट और दूसरे हाथ में चम्मच लेकर खुद
नागार्जुन को खिलाया था। ये वही प्रभाष जोशी थे जिन्होंने नामवर सिंह के 75
साल के होने पर देशभर में नामवर के निमित्त आयोजन किया। इसके लिए प्रभाष जी ने
सुरेश शर्मा को दिल्ली के साहित्य अकादमी के एक कक्ष में बैठक बुलाने का
दायित्व दिया था। उस बैठक में इन पंक्तियों का लेखक भी था। कोलकाता में भी
नामवर के निमित्त का आयोजन हुआ था और उस उत्सव में महाश्वेता देवी ने गाना
गाया था। एक बार कोलकाता आते ही उन्होंने मुझे लक्ष्मीनारायण मंदिर के गेस्ट
हाउस में बुलाया। वहीं वे रुके हुए थे। उन्होंने कहा - चंद्रशेखर जी पर कई
किताबें तैयार हो रही हैं। हरिवंश जी से आपकी बात हुई होगी, आप 'जनसत्ता' से
छुट्टी लेकर महीने भर के लिए दिल्ली आ जाएँ और उन किताबों के संपादन में मदद
करें। तदनुसार मैं दिल्ली गया था और दो माह रहकर उस काम में सहयोग किया था। तब
अक्सर प्रभाष जी से दिल्ली के नरेंद्र निकेतन में भेंट होती। चंद्रशेखर जी की
जो सात किताबें राजकमल से छपी हैं, उनमें प्रायः सभी के शीर्षक प्रभाष जी के
ही दिए हुए हैं। उन दिनों दिल्ली के नरेंद्र निकेतन में वे अक्सर आते। राम
बहादुर राय, हरिवंश और सुरेश शर्मा भी आते। प्रभाष जी की सलाह पर ही दो
किताबों की भूमिका मैंने डॉ. नामवर सिंह और डा. केदारनाथ सिंह से लिखवाई।
उन्हीं दिनों एक शाम उन्होंने कहा, चौबे जी महाराज, अपन चाहते हैं कि हम सभी
जनसत्ता वाले मिलकर एक किताब तैयार करें और उसका नाम रखें - हम जनसत्ताई।
शीर्षक देने के मामले में उनका कोई जवाब न था। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता में
कई नए शब्द भी चलाए। खाड़कू और मुक्तिचीते जैसे शब्द उन्हीं के चलाए हुए हैं।
1995 में 'जनसत्ता' के प्रधान संपादक पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे कुछ
वर्ष पूर्व तक उसके प्रधान सलाहकार संपादक रहे। जितनी संवेदनशीलता से वे
संगीतशिल्पी कुमार गंधर्व पर लिखते, उतनी ही संवेदनशीलता से क्रिकेटर सचिन
तेंदुलकर और राजनीतिक विश्वनाथ प्रताप सिंह पर भी। प्रभाष जी नर्मदा आंदोलन से
लेकर टिकैत के किसान आंदोलन और आरक्षण आंदोलन के पक्ष में लड़ते रहे और भाजपा
के मंदिर आंदोलन और कांग्रेस के अधिनायकवाद का विरोध करते रहे। उनके स्तंभ
'कागद कारे' का पाठक हफ्ता भर इंतजार करते थे। प्रभाष जी आंदोलन से निकले आदमी
थे। कदाचित इसीलिए उनकी पत्रकारिता ने देश में लोकतांत्रिक आंदोलनों के विकास
में अपनी विधायक भूमिका विकट प्रतिकूलताओं के बीच भी निभाई।
प्रभाष जी बीसवीं सदी की सांध्यवेला की पत्रकारिता के रहनुमा थे किंतु भगवान
नहीं थे। वे हाड़-मांस के इनसान थे और इनसान से गलतियाँ होती हैं और उनसे भी
हुई। रामनाथ गोयनका के निधन के बाद प्रभाष जी ने श्रद्धांजलि देते हुए उन्हें
पत्रकारिता का पितृपुरुष लिखने की गलती की थी जिसका हिंदी पत्रकारिता के
इतिहास के विशेषज्ञ डा. कृष्णबिहारी मिश्र ने तीव्र विरोध किया था। मिश्र जी
का कहना था कि यदि गोयनका जी हिंदी पत्रकारिता के पितृ पुरुष थे तो बाबूराव
विष्णु पराड़कर क्या थे। इस संदर्भ में मिश्र जी के विरोध को प्रभाष जी सह
नहीं पाए और उनके खिलाफ भी 'कागद कारे' में नाहक लिखा था।